लकड़ी पर नक्काशी से पुरातन संस्कृति को सहेज रहे रवांई- जौनसार के मंदिर
जौनसार क्षेत्र के भटाड़़ गांव में केदारनाथ मंदिर का निर्माण अंतिम चरण में
चिरंजीव सेमवाल
उत्तरकाशी : पहाड़ की विलुप्त हो चुकी काष्ठ कला को रवांई-जौनसार क्षेत्र के मंदिरों ने जीवित रखा है। रवांई घाटी और जौनसार में क्षेत्र में उत्तराखंड की संस्कृति के कुछ राज मिस्त्री अपने हाथों की कलाकारी से दर्शाने का कार्य कर रहे हैं। ये मिस्त्री विभिन्न क्षेत्रों के मंदिरों में लकड़ी पर नक्काशी कर उत्तराखंडी संस्कृति से लोगों को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
अपनी देव संस्कृति के लिए विश्व विख्यात देहरादून के जनजातीय क्षेत्र जौनसार- बावर के मंदिरों में लकड़ी पर की गई नक्काशी एक तरह से दुर्लभ ही है। यहां कई ऐसे मंदिर हैं जिनके बारे में बताया जाता है कि ये मध्य काल में बने हैं। उस समय काष्ठकुणी शैली में बने मंदिर आज भी कला का बेजोड़ नमूना पेश करते हैं। ये मंदिर काष्ठ यानी लकड़ी के बने हैं, जिन पर आकर्षक कलाकृतियां उकेरी गई हैं। इनमें मुख्य तौर पर देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है। मंदिरों के अलावा कुछ दूसरी इमारतों में भी ऐसी कलाकृतियां बनाई गई हैं। काष्ठकुणी शैली मंदिर व इमारत की सुंदरता ही नहीं दर्शाती, इसके साथ धर्म और इतिहास भी जुड़ा हुआ है।
इन दिनों जौनसार क्षेत्र के भटाड़ गांव में बाबा केदारनाथ का मंदिरों का निर्माण लकड़ी पर नक्काशी कर काष्ठ कला का बेजोड़ नमूना पेश किया जा रहा है । इनमें देवी देवताओं के अलावा फूल पत्ती और उत्तराखंडी संस्कृति से जुड़ती कलाकारी को लकड़ी पर दर्शाने का कार्य किया है।
केदारनाथ मंदिर में भगवान शंकर की छवि सहित शानदार नक्काशी की गई है। इन सभी मंदिरों के स्तंभों, खिड़कियों, दरवाजों, दीवारों, चौखट, बरामदों व छतों पर भी देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों और विभिन्न प्रकार के फूलों की कलाकृतियां बनाई गई हैं। इन मंदिरों में तल से लेकर शिखर तक सुंदर नक्काशी देखने को मिलती है, जिसे रंगों से भी सजाया गया है। बताया जाता है कि इस तरह की नक्काशी का प्रचलन मध्य काल में अधिक था। इस में प्राचीन शैली का मिश्रित रूप भी इनमें दिखता है। इस क्षेत्र के लोगों की मान्यता है कि ऐसी नक्काशी करने का उद्देश्य संस्कृति और धर्म को आने वाली पीढ़ी को धरोहर के रूप में सौंपना है। इन निर्जीव कलाकृतियों में पुरातन संस्कृति हमेशा जिंदा है।
गौरतलब है कि रवांई और जौनसार के मंदिर क्षेत्र की संस्कृति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र हैं, बल्कि स्थानीय कला, संगीत, और सामाजिक संरचनाओं को भी प्रभावित करते हैं।
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बिना कील लगाए जोड़ी जाती है लकड़ी
इस कला की खासियत यह भी है कि इसमें कुछ भी बनाते हुए लकड़ी को जोडऩे के लिए सिर्फ लकड़ी का ही इस्तेमाल होता है। इसमें कील आदि का इस्तेमाल नहीं होता। इस नक्काशी में लागत और समय दोनों अधिक जरूर लगता है लेकिन मजबूत भी इसकी अधिक रहती है ।
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छत ठीक डाली जाए तो हज़ार वर्षों तक नहीं होती खराब
काष्ठकुणी से बने मकान की छत सही हो तो इस पर की नक्काशी एक हजार साल तक भी सुरक्षित रहती है। इसमें कोई दूसरा उत्पाद इस्तेमाल न होने के कारण खराब होने की आशंका कम रहती है।
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नौ जून को नये मंदिर में विराजमान होंगे बाबा केदारनाथ
देहरादून जिला के अंतर्गत यमुना नदी के किनारे लाखामंडल से महज 10 किलोमीटर में आगे भटाड़ गांव में टैक्सी से आसानी से पहुंचा जा सकता है यहां गांव में बाबा केदारनाथ मंदिर का निर्माण कार्य अंतिम चरण में चल रहा है। गांव में केदारनाथ की तर्ज पर प्रचानी पत्थरों से निर्मित बाबा केदारनाथ का मंदिर है। भटाड़ गांव में नौटियाल, थपलियाल और उनियाल समेत कुल 40 परिवार रहते हैं।
मंदिर समिति के अध्यक्ष चंडी प्रसाद नौटियाल, स्याणा सुनील दत्त नौटियाल, व सरदार दत्त नौटियाल ने बताया कि आज सोमवार को नवनिर्मित मंदिर में क्लश चढ़ा दिया गया और मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा आगामी दो जून से शुरू होगी । दो जून को केदारनाथ धाम के लिए प्रस्थान करेंगे और आठ जून को वापस भटाड़ गांव पहुंचेंगे। नौ जून को विशाल भंडारा व पूर्ण आहुति के साथ बाबा केदारनाथ अपने नवनिर्मित मंदिर में विराजमान होंगे।