अक्षय तृतीया को ही हुआ था भगवान परशुराम का आविर्भाव !
चिरंजीव सेमवाल
उत्तरकाशी: देव भूमि में यूं तो असंख्य मंदिर हैं लेकिन उत्तराखंड का उत्तरकाशी एकलौता जनपद है जहां भगवान श्री परशुराम मंदिर समर्पित है । इस मंदिर के गर्भ गृह में मूर्ति 1400 वर्ष से भी अधिक पुराना है जिस पर भगवान विष्णु के अंशावतारों को एक ही शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण किया गया है ,यह मूर्तिकला का उत्कृष्ठ नमूना है। मंदिर के अंदर लगा शिलापटृ 183 साल पुराना है तथा ताम्रलेख 352 साल पुराना है। बता दें कि भगवान परशुराम जगत के पालनहार भगवान विष्णु के छठे अवतार के रुप में जाने जाते हैं। भगवान परशुराम ऋषि जमदग्नि ऋषि और रेणुका के पुत्र हैं और ऐसा माना जाता है कि वे अमर है, जिन्होंने दुष्ट और भ्रष्ट क्षत्रिय राजाओं का सफाया करके धर्म की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
अक्षय तृतीया को ही भगवान श्री परशुराम का आविर्भाव हुआ था ।
“ बैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयाम् पुनर्वसौ , निशाय: प्रथमे यामे रामाख्य: समये हरि: स्वोच्चगै: षडग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते, रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णों विभु: स्वयम् ”
यह परशुराम जयंती हर साल हिंदू माह वैशाख के शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन अक्षय तृतीया को मनाई जाती है। मंदिर के पूजारी विनोद नौटियाल और शैलेंद्र नौटियाल ने बताया कि
उत्तरकाशी में लगभग पिछले 25 वर्षों से भगवान श्री परशुराम का जन्मोत्सव. हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस अवसर पर शहर में भगवान परशुराम की झांकी ,ध्वजयात्रा तथा शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें सैकड़ों लोग सम्मिलित होते हैं। इस वर्ष मंगलमय , 29 अप्रैल को भगवान श्री परशुराम के जन्मोत्सव को हर्षोल्लास के साथ मनाया जायेगा। इस बार भी गत वर्षो की भांति विद्यालय में छात्र -छात्राओं के मध्य शंखनाद तथा श्लोक प्रतियोगिता का आयोज
भी किया जा रहा है।
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परशुराम जयंती का महत्व क्या है?
यह दिन बुराई पर अच्छाई की जीत और धर्म के महत्व का प्रतीक है। भगवान परशुराम को अनुशासन, भक्ति का प्रतीक माना जाता है और उनकी शिक्षाएं लोगों को ईमानदारी से जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं।
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क्या हैं परशुराम की शिक्षा एवं ?
भगवान परशुराम का जीवन कर्तव्य, भक्ति और अन्याय के खिलाफ खड़े होने का महत्व सिखाता है। वे ज्ञान के संरक्षण और ब्राह्मणवादी परंपरा की रक्षा से भी जुड़े हैं।
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भगवान परशुराम ने काटी दी थी सहस्त्रबाहु की भुजाएं!
पौराणिक कथा के अनुशार भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण के हाथो में रहने वाले सुदर्शन चक्र को कभी ना हारने का घमंड होने और युद्ध लड़ने की इच्छा शांत नहीं होने पर सुदर्शन ने भगवान विष्णु से ही युद्ध करने की इच्छा जता दी थी. तब भगवान ने सुदर्शन की इच्छा को पूरी करने के लिए पृथ्वी पर परशुराम के रूप में 18वां अवतार लिया और सुदर्शन चक्र ने सहस्त्रार्जुन का अवतार लिया। विष्णु पुराण के अनुसार एक दिन सहस्त्रबाहु अपनी सेना के साथ जमदग्नि ऋषि के आश्रम थानगांव में विश्राम के लिए रुके थे यहां उन्होंने कामधेनु गाय को देखा और साथ ले जाने की इच्छा जताई, परंतु महर्षि जमदग्नि ने देने से इंकार कर दिया, तब क्रोधिक सहस्त्रबाहु ने ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा, लेकिन कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।
परशुराम ने लिए था संकल्पजब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए और उसी वक्त सहस्त्रार्जुन और उसके वंश का नाश करने का संकल्प लिया एवं माहिष्मति पहुंच गए। यहां दोनों के बीच युद्ध हुआ और परशुराम ने सहस्त्रबाहु की सभी भुजाएं काट दी थी।